आश्रम-व्यवस्था क्या है आश्रम-व्यवस्था का अर्थ, महत्व, परिभाषा एवं इसका मूल्यांकन

By Arun Kumar

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आश्रम-व्यवस्था (Ashram System) – आश्रम-व्यवस्था प्रमुख रूप से एक नैतिक मानसिक व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत व्यक्ति के अपनी आयु के विभिन्न स्तरों में पृथक् पृथक दायित्वों का निर्वाह करते हुये ‘मोक्ष’ के अन्तिम लक्ष्य को प्राप्त करना होता है। ‘आश्रम’ शब्द मौलिक रूप से ‘श्रम’ धातु से बना है, जिसका अर्थ है उद्योग करना अथवा परिश्रम करना।

पी०एच०प्रभु ने अपनी पुस्तक, ‘हिन्दू सोशल ऑर्गनाइजेशन (Hindu Social Organisation) में कहा है कि आश्रम शब्द से दो अवस्थाओं की ओर संकेत मिलता है-

(अ) एक स्थान जहाँ परिश्रम किया जाय, तथा

(ब) इस प्रकार के परिश्रम के लिये की आने वाली क्रिया।

आश्रम-व्यवस्था का अर्थ उस व्यवस्था से है जिसमें व्यक्ति अनेक कार्यात्मक स्तरों पर विश्राम करता हुआ अपने अन्तिम लक्ष्य ‘मोक्ष’ की ओर बढ़ता है। हिन्दू आश्रम व्यवस्था चार स्तरों में विभाजित है और प्रत्येक स्तर व्यक्ति को भिन्न-भिन्न दायित्वों के निर्वाह का आदेश दिया गया है। इसके उपरान्त भी यह सभी स्तर एक दूसरे से सम्बद्ध रहकर लक्ष्य पूर्ति में सहायक होते हैं।

इसी आधार पर महाभारत में वेदव्यास ने कहा है कि “जीवन के चार आश्रम व्यक्तित्व के विकास की चार सौड़िया है। जिन पर क्रम से चढ़ते हुये व्यक्ति ब्रहा की प्राप्ति करता है।”

भारतीय समाज में व्यक्ति के सभी कर्तव्यों को चार प्रमुख भागों में विभाजित कर दिया गया है। इन्हें हम क्रमशः धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष कहते हैं। इन चारों दायित्वों की पूर्ति तभी हो सकती है जब व्यक्ति का मानसिक, शारीरिक, नैतिक और आध्यात्मिक विकास समुचित रूप से हो। आश्रम व्यवस्था में व्यक्ति के इन्हीं गुणों को विभिन्न स्तरों के माध्यम से विकसित करके उसे मोक्ष के लिये तैयार किया जाता है।

हिन्दू ग्रन्थों में आश्रम-व्यवस्था के चार स्तरों का उल्लेख मिलता है-

  • ब्रह्मचर्य,
  • गृहस्थ,
  • वानप्रस्थ, तथा
  • सन्यास।

प्रत्येक स्तर की सीमा 25 वर्ष की होती है। अतः प्रारम्भिक 25 वर्ष ब्रह्मचर्य आश्रम, 25-50 वर्ष की आयु तक गृहस्थ, 50-75 वर्ष तक वानप्रस्थ तथा 75-100 वर्ष तक सन्यास आश्रम में व्यक्ति को जीवन व्यतीत करना होता है।

सामाजिक महत्व (SU2016): भारतीय समाज में आश्रम व्यवस्था व्यक्ति के समाजीकरण का प्रमुख आधार है। इसकी प्रमुख सामाजिक महत्ता इस प्रकार है:-1. जीवन का समुचित विकास आयु व्यतीत होने के साथ ही साथ व्यक्ति की कार्य-क्षमता, दृष्टिकोण, अनुभवों और मानसिक प्रवृत्तियों में सदैव परिवर्तन होता रहता है। आश्रम व्यवस्था के अन्तर्गत आयु के इन परिवर्तनों के अनुसार ही जीवन को चार आश्रमों में विभाजित करके व्यक्ति के धर्म इस प्रकार निर्धारित किये जातें हैं जिससे वह अपनी आयु सम्बन्धी विशेषताओं के अनुसार ही जीवन के विभिन्न दायित्वों को पूरा कर सके। इस प्रकार जीवन का समुचित विकास करने इस व्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

2. सामान्य कल्याण को प्रोत्साहन – व्यक्तिवादिता दोषों को समाप्त करने के लिये ही विभिन्न आश्रमों के धर्म इस प्रकार निर्धारितकिये गये हैं जिससे सामान्य कल्याण की भावना को अधिकाधिक प्रोत्साहन मिल सके सभी आश्रमों के द्वारा समाज के सभी वर्गों को एक-दूसरे से इस प्रकार सम्बद्ध कर दिया गया कि किसी भी एक के योगदान के बिना न तो व्यक्ति का विकास हो सकता है और न ही मोक्ष-प्राप्ति की सम्भावना ही की जा सकती है। ऐसे प्रयों के हो कारण भारतीय संस्कृति को विभिन्नताओं में भी एकता का आदर्श प्रस्तुत करने में अग्रणी माना जा रहा है।

3. मानसिक स्थिरता में सहायक :- व्यक्ति को यदि अपने सभी दायित्वों की रूपरेखा स्वयं ही तैयार करनी पड़े तब इससे संघर्ष में तो वृद्धि होती ही है, साथ ही जीवन का अधिकांश भाग परीक्षण (Trial and error) में ही व्यतीत हो जाने की सम्भावना हो जाती व्यक्ति आश्रम-व्यवस्था के द्वारा प्रत्येक पूर्व निर्धारित कर्त्तव्यों के अनुसार जीवन व्यतीत करता है और इस प्रकार उसे समाज के लिये कल्याणकारी कार्य करने के लिये काफी अतिरिक्त समय मिल जाता है। इससे व्यक्ति मानसिक रूप से स्थिर होता है।

4. बौद्धिक विकास का सर्वोत्तम आधार – आश्रम व्यवस्था बौद्धिक विकास में अत्यधिक सहायक रही है। इसके अन्तर्गत जीवन के प्रथम 25 वर्षों की अवधि केवल ज्ञान अर्जित करने के लिये ही निर्धारित की गयी है। गृहस्थ आश्रम में भी धर्म कार्यों के माध्यम से ज्ञान का अर्जन करता है। इसके पश्चात् वानप्रस्थ आश्रम में व्यक्ति को अपने संचित ज्ञान और अनुभवों के आधार पर ब्रह्मचारियों को शिक्षा प्रदान करती है। इस प्रकार इस व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति समय-समय पर शिष्य और शिक्षक दोनों है। अतः यह व्यवस्था बौद्धिक विकास का एक सर्वोत्तम आधार है।

5. व्यावहारिकता आश्रम– व्यवस्था एक व्यावहारिक व्यवस्था है जिसमें जीवन के सभी कर्त्तव्यों को सामाजिक उपयोगिता के साथ जोड़ दिया गया। इस व्यवस्था के अन्तर्गत धर्म को अलौकिक विश्वासों से न जोड़कर, व्यक्ति के सांसारिक कर्त्तव्यों के संदर्भ में स्पष्ट किया गया। आर्थिक क्रियाओं को करने में व्यक्ति को अनियंत्रित छूट नहीं दी गयी है, बल्कि अर्थ को मोक्ष प्राप्ति का एक साधन मानकर इसे सामाजिक कल्याण के लक्ष्य से जोड़ दिया गया। इसी के साथ आर्थिक क्रियाओं के महत्व को स्वीकार करते हुये यहाँ तक मान लिया गया कि इस दायित्व को पूरा किये बिना मोक्ष की प्राप्ति हो ही नहीं सकती। इसी गुण के कारण व्यक्ति का सांसारिक जीवन उद्योगी बन सका।

6. मानवीय गुणों का विकास – एक मानवतावादी समाज की स्थापना करने में भी आश्रम-व्यवस्था महत्वपूर्ण है। आश्रम-व्यवस्था से सम्बन्धित विभिन्न धर्मों ने व्यक्ति में सरलता, पवित्रता, निष्ठा, सहिष्णुता, सामाजिकता, सेवा, बन्धुत्व समानता, उदारता और आध् यात्मिकता के गुण उत्पन्न करने के प्रयत्न किये हैं।

आश्रम-व्यवस्था की उपरोक्त महत्ता के बावजूद कुछ विद्वान ऐसा मानते हैं कि यह व्यवस्था सैद्धान्तिक स्तर तक ही सीमित रह गयी। व्यवहार में इसे बहुत कम ही लागू किया जा सका।

निष्कर्ष

वेदों में तो इस व्यवस्था का कहीं उल्लेख नहीं मिलता उत्तर-वैदिक काल में रचित उपनिषदों में ही इसका उल्लेख मिलता है। महाभारत में भी जहाँ आश्रम-व्यवस्था का सबसे अधिक उल्लेख हे, वहाँ भी इसका केवल सैद्धान्तिक पक्ष ही मिलता है, वास्तविक उदाहरणों की कमी है। ऐसा प्रतीत होता है कि महाभारत काल में भी यह व्यवस्था कुछ ऋषियों मुनियों तक ही सीमित थी।

FAQ

Q. आश्रम व्यवस्था क्या है इसका महत्व समझाइए?

A. आश्रम – व्यवस्था परमार्थ की ही व्यवस्था है । ब्रह्मचर्याश्रम में बालक का दृष्टिकोण अपने ऊपर होता है । वह पढ़ता – लिखता, खाता-पीता, सोता और अपने आत्म, मन व शरीर को बनाता है ।

Q. आश्रम व्यवस्था में कितने प्रकार के?

A. पहला ब्रह्मचर्य आश्रम, दूसरा गृहस्थ आश्रम, तीसरा संन्यास आश्रम और चौथा वानप्रस्थ आश्रम।

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Arun Kumar

MA, B.Ed & MSW

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