भारत में जाति के भविष्य की विवेचना

By Arun Kumar

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समकालीन भारत में एक जाति अथवा उपजाति का सदस्य होने का कोई खास अर्थ नही होता है। जाति व्यवस्था कमजोर हो गई है और पुरानी शक्ति की तरह कार्य नही कर सकती। फिर भी विवाह के क्षेत्र में इसका महत्व बना हुआ है। समकालीन भारत में अतः विवाह अभी भी विवाह का एक प्रधान रुप है परन्तु अंर्त-जातीय विवाह भी स्वीकृत हो रहे है यह लक्षण नगरीय क्षेत्रों में देखने को मिलता है।

जाति व्यवस्था की संरचनात्मक एवं प्रकार्यात्मक व्यवस्था कमजोर हो गई है। धार्मिक कर्मकाण्ड, खान-पान एवं शारीरिक मेल-जोल संबंधी निषेध प्रायः समाप्त होते जा रहे है। जाति एवं व्यवसाय का संबंध अब वीते दिनों की बात हो गई है।

जाति व्यवस्था में होने परिवर्तनों को देखकर बहुत से लोग यह प्रश्न करते है। कि क्या जाति विघटित हो रही है? क्या वर्तमान परिस्थितियों में जाति के लिये अपने अस्तित्व को बनाये रखना सम्भव नहीं है ? जाति व्यवस्था में होने वाले परिवर्तनों के आधार पर कई लोग कहने लगे है कि जाति को निश्चित रुप से समाप्त होना चाहिये तथा कुछ अन्य लोगों की धारणा है कि यह स्वयं समाप्ति की ओर अग्रसर है। ये दोनो विचार समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से उचित नहीं है। इस सम्बन्ध में डॉ० आर० एन० सक्सेना, ने लिखा है, ” जाति प्रथा को समाप्त होना चाहिये, यह कहना और बात है और क्या जाति-प्रथा समाप्त हो सकती है, यह कहना और बात संस्थाओं को, विशेषतया ऐसी संस्था को जिसकी शाखाएं हिन्दू समाज के बाहर तक फैली हुई है, निर्मूल समाप्त करने की बात समाजशास्त्र के अधिकार क्षेत्र के बाहर है। जाति प्रथा स्वयमेव समाप्त हो रही है, ऐसा मानना निराधार है।”

इस सम्बन्ध में डॉ० धुरिये और डॉ० श्री निवास का विचार है कि जहाँ अंग्रजी शासन काल में होने वाले परिवर्तनों ने जाति-प्रथा के बन्धनों को शिथिल किया, वहाँ उन्होने साथ ही जाति प्रथा को प्रोत्साहन भी दिया। सरकार द्वारा पिछड़े वर्गों, अस्प्रश्य जातियों को दी जाने वाली सुविधाओं एवं अछूत आन्दोलनों ने जाति की जड़ों को मजबूत करने में योग दिया है, जातिय बन्धनों को दृढ़ किया है।वर्तमान में अनेक जातियों मे राजनैतिक चेतना बढ़ी है जिसने उन्हे संगठित होने के लिये प्रेरित किया है।

एफ० जी० बेली ने उड़ीसा के एक क्षेत्र के अध्ययन के आधार पर यह बताया है कि वर्तमान परिस्थितियों के अर्न्तगत जाति का राजनैतिक महत्व बढ़ गया है और इस कारण प्रत्येक जाति संगठित होने के लिये प्रोत्साहित हुई है।

डॉ० योगेश अटल ने दो भिन्न सांस्कृतिक क्षेत्रों के दो भागों के अध्ययन के आधार पर कहा है कि “जाति अभी एक महत्वपूर्ण शक्ति है और उसमें बहुत थोड़े परिवर्तन हुए है और वे भी अधिकांशतः सतही “

नर्म देश्वर प्रसाद ने लिखा है कि अनेक परिवर्तनों के बावजूद, जाति-व्यवस्था बहुत कुछ पहले के समान ही है। इस व्यवस्था के भीतर परिवर्तन होते रहते है, परन्तु इसके बाहर नही। जाति न केवल एक प्रक्रिया है बल्कि यह हमारे सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक चिन्तन एवं व्यवहार की एक उपज भी है। इस सारी विवेचना से स्पष्ट है कि जाति संस्था न तो विघटित हुई है और न किसी ऐसी प्रक्रिया में है, केवल परिवर्तित हो रही है।

निष्कर्ष

जाति व्यवस्था की संरचनात्मक एवं प्रकार्यात्मक व्यवस्था कमजोर हो गई है। धार्मिक कर्मकाण्ड, खान-पान एवं शारीरिक मेल-जोल संबंधी निषेध प्रायः समाप्त होते जा रहे है। जाति एवं व्यवसाय का संबंध अब वीते दिनों की बात हो गई है।

FAQ

Q. भारत में जाति व्यवस्था का भविष्य क्या है?

A. आज की पीढी का प्रमुख कर्त्तव्य जाति – व्यवस्था को समाप्त करना है क्योकि इसके कारण समाज मे असमानता , एकाधिकार , विद्वेष आदि दोष उत्पन्न हो जाते है।

Q.भारत में No 1 जाति कौन सी है?

A. भारत में कोई एक “नंबर एक (number one)” जाति नहीं है, क्योंकि जाति रैंकिंग और पदानुक्रम क्षेत्र और ऐतिहासिक संदर्भ के अनुसार भिन्न होते हैं।

Q. भारत में नंबर 2 जाति कौन सी है?

A. गोंड जनजाति, जनसंख्या के आकार के मामले में भीलों के बाद दूसरे स्थान पर है।

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Arun Kumar

MA, B.Ed & MSW

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