वर्णधर्म :- विशिष्ट धर्म के एक प्रमुख स्वरूप के रूपमें वर्ण धर्म जाना जाता है। अनेक हिन्दू धर्म शास्त्रों में विशिष्ट धर्म अथवा स्वधर्म को सामान्य धर्म की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण बताया गया है। और यह विधान है कि यदि किसी परिस्थिति में स्वधर्म और सामान्य धर्म में से किसी एक का ही निर्वाह करना हो तो स्वधर्म को अधिक महत्व देना उचित है। क्योंकि इसे व्यावहारिक धर्म माना जाता है तथा इसका सम्बन्ध लौकिक जगत से जोड़ा जाता है।
इस दृष्टिकोण से हिन्दुओं को चार वर्णों में विभाजित करके प्रत्येक वर्ण के पृथक-पृथक कर्तव्य निर्धारित कर दिये गये इन्हें ही वर्ण धर्म कहा गया है।
ये चार वर्ण निम्नलिखित हैं :-
1. ब्राह्मण,
2. क्षत्रिय,
3. वैश्य,
4. शूद्र
धार्मिक रूप से इन चारों वर्णों के पृथक-पृथक धर्म (कर्तव्य) इसलिए निर्धारित किये गये जिससे प्रत्येक व्यक्ति दूसरे की तुलना में अपने दायित्वों का उचित रूप से निर्वाह कर सके इस प्रकार चारों वर्णों के निम्नलिखित कर्तव्य वर्ण धर्म के रूप में निर्धारित किये गये।
ब्राह्मण धर्म :- पुरूष सूक्त के अनुसार, ब्राह्मण वर्णसमाज का मस्तिष्क है। इसका सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य धर्माचरण करना, इन्द्रियों पर संयम रखना, तथा ज्ञान में वृद्धि करना है। अनेक धर्मशास्त्रों में ब्राह्मणों का मुख्य कर्तव्य अध्ययन करना, शिक्षा देना, यानि सम्पादित करना, दान लेना, सात्विक गुणों को विकसित करना आदि है।
क्षत्रिय धर्म- मनु ने क्षत्रिय धर्म का उल्लेख करते हुएकहा है कि प्रजा की रक्षा करना, दान देना, विषय वासना से दूर रहना तथा अपनी शक्ति का उचित उपयोग करना क्षत्रियों के मुख्य कर्तव्य है। पुरूष सुक्त में भी क्षत्रिय वर्ण की उत्पत्ति ब्रह्मा की भुजा से बतायी गयी है, जो शक्ति और साहस का प्रतीक है।
वैश्य धर्म : वैश्यों का धर्म समाज के भरण-पोषण कादायित्व अपने ऊपर लेकर समाज के अस्तित्व को बनाये रखना है। वैश्य का कर्तव्य है कि वह उचित साधनों से धन संग्रह करें। मनुस्मृति में वैश्यों के कर्तव्य इस प्रकार बताये गये है पशुओं की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, अध्ययन करना, व्यापार करना, कृषि करना, ब्याज पर धन देना। गीता में वैश्यों के कर्तव्य कृषि करना, गौ रक्षा और व्यापार बताये गये हैं।
शूद्र धर्म : पुरूष सूक्त में शूद्र वर्ण की उत्पत्ति विराटपुरूष ब्रह्मा के चरणों से बताई गयी है। प्रतीकात्मक रूप से चरण शरीर का वह महत्वपूर्ण अंग है जिसके द्वारा हमारा सम्पूर्ण शरीर गतिशील रहता है। इसी कारण शूद्र वर्ण को महान और उपयोगी बताया गया है। इस वर्ण का सबसे प्रमुख कर्तव्य अन्य सभी वर्णों की सेवा करके अपनी सहनशीलता एवं सहिष्णुता का परिचय देना है।इस प्रकार वर्ण धर्म के अन्तर्गत विभिन्न वर्णों के कर्तव्यों को स्पष्ट किया गया है। इसके द्वारा विशेषीकरण को प्रोत्साहन देकर समाज का विकास करने का प्रयत्न किया गया।
निष्कर्ष
स्वधर्म और सामान्य धर्म में से किसी एक का ही निर्वाह करना हो तो स्वधर्म को अधिक महत्व देना उचित है। क्योंकि इसे व्यावहारिक धर्म माना जाता है।
FAQ
Q. वर्ण व्यवस्था क्या है विस्तार से समझाइए?
A. धर्म-शास्त्रों में वर्ण व्यवस्था समाज को चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) में विभाजित करती है।
Q. वर्ण व्यवस्था से आप क्या समझते हैं?
A. वर्ण व्यवस्था वर्ण, जाति पर आधारित सामाजिक स्तरीकरण है।