अपराध (CRIME) – प्रत्येक समाज में हर समय कुछ ऐसे व्यक्ति मौजूद रहे हैं जो समाज द्वारा स्वीकृत नियमों और आदशों के विपरीत व्यवहार करते रहे हैं। अपराध का पूर्णतया उन्मूलन केवल एक कल्पना मात्र है। अपराध के जन्म की कहानी समाज के जन्म के साथ जुड़ी हुई है, अतः जब तक समाज रहेगा, अपराध भी रहेगा।
इतना अवश्य है कि इसकी मात्रा कम वा ज्यादा हो सकती है। यहां यह भी ध्यान देने योग्य तथ्य है कि समाज के विकास और उसमें जटिलता की वृद्धि के साथ-साथ अपराध की दर भी बढ़ी है। यह वात अमरीका तया अनेक अन्य देशों के उदाहरणों से प्रमाणित होती है। जहां एक ओर अमरीका की गणना विश्व के सर्वाधिक विकसित एवं सभ्य देशों में की जाती है, वहीं दूसरी ओर दुनिया में सबसे अधिक अपराध भी उसी देश में होते हैं।
प्रत्येक समाज अपनी सामाजिक संरचना और व्यवस्था को बनाये रखने एवं ठीक प्रकार से चलाने के लिए कुछ नियमों, प्रथाओं, रूढ़ियों, जनरीतियों एवं सामाजिक मानदण्डों को विकसित करता है। इनमें से कुछ के विपरीत आचरण करने पर निन्दा की जाती है, कुछ का उल्लंघन अनैतिक माना जाता है, तो व्यवहार के कुछ प्रतिमानों के विरुद्ध कार्य करने पर समाज द्वारा कठोर दण्ड दिया जाता है। यद्यपि अपराध एक सार्वभौमिक तथ्य है, फिर भी समय, स्थान और परिस्थिति के अनुसार इसकी अवधारणा वदलती रही है। एक ही कार्य एक स्थान पर अपराध माना जाता है, किन्तु दूसरे स्थान पर उसी के लिए पुरस्कृत किया जाता है।
साधारणतः, यदि कोई किसी की हत्या (the killing कर देता है तो हत्यारे को मृत्युदण्ड या आजीवन कारावास की सजा दी जाती है, जबकि युद्ध में अधिकाधिक दुश्मनों को मारने वाले को राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया जाता है। जाति के बाहर विवाह करना कभी अपराध माना जाता था, परन्तु आज नहीं। सती प्रथा, वाल-विवाह और दहेज प्रथा किसी समय उचित ही नहीं बल्कि सम्माननीय व्यवहार माने जाते थे, किन्तु आज ये व्यवहार कानून की दृष्टि से दण्डनीय हैं। हिन्दुओं में बहुपत्नीत्व किसी समय सामाजिक प्रतिष्ठा का सूचक था, किन्तु वर्तमान में कानूनी दृष्टि से अपराध है।
अपराध की अवधारणा (concept of crime) राज्य के विकास के साथ-साथ स्पष्ट होती गयी। अति प्राचीन समय में और आज भी आदिम समाजों तथा ग्रामीणों में यह विश्वास है कि अपराध ईश्वरीय नियमों का उल्लंघन है,
अतः वह पाप है। यदि कोई व्यक्ति समाज की नजर से बच भी जाये फिर भी वह ईश्वर के द्वारा इस लोक या परलोक में दण्ड अवश्य पायेगा। धर्म एवं नैतिकता का घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। अतः अपराध को नैतिक दृष्टि से ऐसा कार्य समझा गया जिसे नीतिशाख अनैतिक मानता है। सामाजिक दृष्टि से अपराध में समाज के नियमों का उल्लंघन होता है और उससे समाज को हानि होती है। बीसवीं सदी में अपराध के प्रति तार्किक एवं सामाजिक दृष्टिकोण विकसित हुआ जिसके अनुसार अपराध को समाज-विरोधी कार्य माना गया।
राज्य के शक्ति ग्रहण करने के साथ-साथ व्यक्ति के व्यवहारों को राज्य के नियमों से सम्बद्ध किया गया और ऐसे सभी कार्य जिनसे राज्य के नियमों का उल्लंघन होता हो, अपराध माने जाने लगे। इस प्रकार अपराध का सम्बन्ध समय-समय पर धर्म, नैतिकता, समाज और राज्य से जोड़ा जाता रहा है। यही कारण है कि अपराध की व्याख्या देश. काल और परिस्थिति के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार से की जाती रही है। हम यहां अपराध की सामाजिक एवं वैज्ञानिक व्याख्या प्रस्तुत करेंगे।
निष्कर्ष
प्रत्येक समाज अपनी सामाजिक संरचना और व्यवस्था को बनाये रखने एवं ठीक प्रकार से चलाने के लिए कुछ नियमों, प्रथाओं, रूढ़ियों, जनरीतियों एवं सामाजिक मानदण्डों को विकसित करता है
FAQ
Q. अपराध का अर्थ क्या होता है?
A. किसी सामाजिक या नैतिक नियम का उल्लंघन या उल्लंघन; अतिक्रमण; पाप।
Q. अपराध क्या है और यह कितने प्रकार का होता है?
A. अपराधशास्त्री आम तौर पर अपराधों को कई प्रमुख श्रेणियों में वर्गीकृत करते हैं:
1. हिंसक अपराध;
2. संपत्ति अपराध;
3. सफेदपोश अपराध;
4. संगठित अपराध; और
5. सहमति से या पीड़ित रहित अपराध
Q. अपराध का जनक कौन है?
A. शुरुआती अध्ययनों में उन विशिष्ट लक्षणों की तलाश की गई जो अपराधियों में थे, जिसके कारण वे अपराधी बन गए। आधुनिक अपराध विज्ञान ने भविष्यवाणी करने और समझाने की कोशिश करने के लिए कि कौन अपराधी बनेगा, शारीरिक विशेषताओं पर ध्यान केंद्रित किया, जैसे कि किसी के माथे का आकार। आधुनिक अपराधशास्त्र के जनक सेसारे लोम्ब्रोसो थे